योन विकास के कौन-कौन से सिद्धांत हैं :---
( What are the principles of vaginal development )
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने यौन विकास से जुड़े सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं इन बालकों में आयु बढ़ने के साथ-साथ योन पहचान या यौन संबंधी भेदभाव किस प्रकार होता है यह ज्ञान इन सिद्धांतों से मिलता है जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत निम्न है ---
1. सामाजिक अधिगम से संबंधित सिद्धांत :--- (Theory related to social Learning )
यह सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि यदि बालकों को लिंग संबंधी रूढ़ियों तथा लिंग भूमिकाओं के अनुसार व्यवहार करने पर पुरस्कार या पूनरबलन प्रदान किया जाता है तो वह इस प्रकार के व्यवहार प्रतिमान को अर्जित कर लेते हैं तथा अपने लिंग से संबंधित अपेक्षा के अनुसार व्यवहार करना सीख जाते हैं इस प्रकार के बालक अपने ही लिंग वाले माता और पिता की आदतों व्यवहार और रूचियों तथा अभिवृत्तियों के अनुसार व्यवहार करना शुरू कर देते हैं अर्थात वह अपने माता पिता जैसा बनने का प्रयास करने लगते हैं
उदा. -- छोटा लड़़का अपने पिता की तरह चलना बैठना कपड़ेे पहनना चश्माा लगाना तथाा चश्मा वैसी ही क्रियाएं करने लगता है इसी प्रकार छोटी लड़की भी अपनी मां की तरह बातें करना व्यवहार करना, खाना बनाना, साड़ी पहनना आदि क्रियाएंं करनेेे लगती है।। जैसे-जैसे बालक इन आदतों या व्यवहारों को सीखता है वैैसे वैैैसे वह योन पहचान की ओर बढ़ता है अर्थात वह नर और मादा से संबंधित अन्तर के बारे में स्पष्ट ज्ञान हाासिल कर लेता है।
2. यौन तत्व सिद्धांत अथवा योन स्कीमा सिद्धांत :-- (Gender schema theory )
इस सिद्धांत के अनुसार बालक की यौन पहचान और उसके फलस्वरूप बालक में उत्पन्न होने वाले लिंग श्रेणी संगति के विकास में यौन तत्व अथवा लिंग स्किमा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस सिद्धांत के प्रतिपादन का श्रेय बेन को जाता है बेन का मानना है कि कोई भी बालक किस जाति अथवा धर्म से सम्बन्ध रखता है उस बालक के शरीर के विभिन्न अंगों की बनावट या शरीर का रंग या आंखों का रंग कैसा है इत्यादि के सम्बन्ध में जानने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक है कि बालक किस यौन से सम्बन्ध रखता है।।
3. संज्ञानात्मक विकास से जुड़ा सिद्धांत :--- ( Theory related to Cognitive Development )
इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे में शारीरिक, मानसिक, क्रियात्मक , नैतिक तथा अन्य अनेक प्रकार के विकास के साथ संज्ञानात्मक विकास भी होने लगता है। प्रारम्भ में बालक को अपने बारे में किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं होता। धीरे धीरे वह स्वयं ओर दूसरों में अन्तर करना सीख जाता है दूसरे शब्दों में वह अपने बारे में वह अपनी समझ पैदा करनी शुरू कर देता है। दो वर्ष कि आयु से पहले तक बालक को अपने आत्म के बारे में कुछ भी मालूम नहीं होता। वह लड़का है या लड़की इसका उसे स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। दो वर्ष कि आयु तक बालक अपने आत्म के बारे मैं स्पष्ट ज्ञान हासिल कर लेते हैं। अर्थात वह यह जान लेता है कि वह कौन है ? वह क्या है? इत्यादि। दूसरे शब्दों में, बालक 2 वर्ष की आयु तक यौन पहचान की ओर बढ़ते हैं।
जब बालक वस्तुओं को विभिन्न श्रेणियों में बांटने की योग्यता ग्रहण कर लेते हैं तब उन्हें पता चलता है कि उसका सम्बन्ध एक विशिष्ट श्रेणी अर्थात स्त्री या पुरुष से है। वे विपरीत श्रेणी में नहीं जा सकते। यदि वह लड़का तो है पिता ही बनेगा और लड़की मां ही बनेगी। इस प्रकार वे यौन सम्बन्धी अन्तर का ज्ञान स्पष्ट रूप से प्राप्त कर लेते हैं तथा अपने यौन के अनुसार ही व्यवहार करने लगते हैं।।